Sunday 19 May 2013

वह सड़क बंद है


हर तरफ खौफनाक सन्नाटा
कहीं कोई आवाज नहीं
हालांकि दर्द हदों को छू गया।

जिंदगी
दरकने लगी है
तप रही है जमीन,
पानी की बूंद
गायब हो जाती है
गिरते ही;
सिर झुकाए लेटी
भूरी घास की आंख में
प्यास छलकती है।

ओठों पर जमी
पपड़ियां रोकती हैं
शब्दों को बढ़ने से
हवा घूम फिर कर
लौट आती है वहीं
जर्जर किवाड़
हिलता है बस।

छप्पर के नीचे
सिर झुकाए बैठा
कुत्ता
रखवाली कर रहा है
जरूरतों की।

भूख
अहसास बन
पूरे मन पर छा गयी;
चूल्हों ने बंद कर दिया
शिकायत करना।

शरीर में जगह जगह
उभर आई हैं दरारें
जिन्हें चीथड़ों से भरने की कोशिश
नाकाम होने लगी हैं।

आंख में कोई सपना तो नहीं
लेकिन देखती हैं उस तरफ
जो सड़क संसद को जाती है
वह सड़क बंद है।
               - बृजेश नीरज

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