Monday 20 May 2013

सॉनेट/ आस सी भरती


जब जब सूरज की किरनें पूरब में चमकी
जगत में छाया गहन तिमिर तब तब छंटता
लेकिन अंधियारा शेष रहा तो है बहकी
मन की पांखों के नीचे। पक्षी है फिरता
ढूंढे ठूंठों में बचे हुए जीवन के कण
पर पत्ता है फूल बचा बस वीराना
अब पायें कैसे सपन सरीखे सुख के क्षण।
बढ़ते बढ़ते यह प्यास बनी है इक झरना
तृप्ति की कोई आस नहीं, धूप है गहरी
एक मरीचिका सी चमकें ओस की बूंदें
इन किरनों में। तभी कौंध सी बिखरी
कि तुम आयी सहज समेटे तृप्ति की बूंदें
जैसे बहती अविरल धारा कल कल करती
इस थके पथिक में भी एक आस सी भरती।

          - बृजेश नीरज 

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